Wednesday, August 26, 2009

सनातन शब्द का अर्थ क्या है ?

सिद्धि विनायक 

आइये अपने सनातन धर्म के विषय में भी कुछ जाने

आज मैंने अपने "सिद्धि विनायक " नाम के एक धार्मिक ब्लॉग की रचना की है। इस ब्लॉग में मैं सनातन धर्मं की बहुत ही रोचक व ज्ञानवर्धक जानकारियां उपलब्ध करवाने के लिए मैं सभी विद्वत् जनों से यथा सम्भव प्रयत्न करने के लिए प्रार्थना करूँगा ।
सनातन धर्म के विषय में कुछ भी लिखने से पूर्व मैंने बहुत सी धार्मिक पुस्तकों, पत्रिकाओं और इस क्षेत्र में काम कर रहे विभिन्न संगठनो और उनके द्वारा सनातन धरम के प्रचार व प्रसार के लिए चलाई जा रही वेब साईट साइट्स और ब्लोग्स के साथ-साथ नेट पर उपलब्ध जानकारियों का भी अवलोकन किया।
सनातन धरम के कुछ बड़े संगठनों के साथ नेट पर मेल्स का आदान-प्रदान भी हुआ। उनकी वेब साईट पर प्रकाशित कुछ ज्ञान-वर्धक जानकारियों (विशेषकर हिंदी के कुछ वीडिओस) को सिद्धि-विनायक नाम के इस धार्मिक ब्लॉग पर पुनः प्रकाशित करने हेतु उनकी पूर्वानुमति भी मांगी गई ताकि किसी भी प्रकार से कॉपी-राइट नियमों का उल्लंघन न हो। और मुझे यह सुचना देते हुए बहुत ही हर्ष हो रहा है कि सभी ने मेरे इस कार्य के लिए मुझे बधाई के साथ-साथ पूर्वानुमति व भविष्य में भी हर प्रकार की सहायता उपलब्ध करवाने का आश्वासन भी दिया है।
हम सभी का एकमात्र उद्देश्य तो सनातन धर्म का प्रचार और प्रसार ही तो है। फिर भी यदि मैं इस ब्लॉग पर प्रकाशित होने वाली किसी विशेष जानकारी या जानकारियों को यदि किसी वेब-साईट, ब्लॉग या किसी पत्रिका आदि के सौजन्य से संकलित कर प्रकाशित करूंगा, तो उस वेब- साईट, ब्लॉग या पत्रिका का नाम अवश्य ही उस लेख या जानकारी के साथ ही प्रकाशित करूंगा ।
यह सिद्धि-विनायक ब्लॉग विशुद्ध रूप से इक व्यक्तिगत व धार्मिक ब्लॉग है और इसका किसी भी रूप से और किसी के भी साथ किसी भी प्रकार का कोई व्यवसायिक सम्बन्ध नहीं है ।
मैं इस ब्लॉग को कामयाब बनाने के लिए आप सभी के सुझाव व भेजी जाने वाली जानकारियां सहर्ष स्वीकार
करूँगा और वे प्रेषक के नाम से ही प्रकाशित की जायेंगी।

धर्म क्या है


"सनातन- धर्म"   शब्द का अर्थ क्या है ? 

 सनातन-धर्म के विषय में जानने में से पूर्व हमें सनातन और धर्म दोनों शब्दों का अलग-अलग अर्थ समझने की आवश्यकता होगी। सनातन शब्द संस्कृत भाषा का शब्द है । जैसा की यह सर्व-विधित है की संस्कृत भाषा को देव- भाषा माना जाता है और इसे विश्व की सभी भाषाओँ की जननी भी कहा जाता है। विश्व के पुरातन और प्राचीनत्तम ग्रन्थ वेद , पुराण , उपनिषद और गीता आदि सभी की लिखित-रचना संस्कृत भाषा में ही हुई थी । तत्पश्चात् देवनागरी ,वर्तमान हिन्दी और अन्य भाषाओं में इनका अनुवाद हुआ था ।
संस्कृत भाषा में सनातन शब्द का अर्थ है सत्य, शिक्षाओं या परम्परा आदि । बहुत से विद्वान , संत , उपदेशक आदि सनातन शब्द का प्रयोग अजर,अमर, सार्वभौमिक ,सर्व-व्यापी, प्राचीनत्तम या आदि-अनंत-कालीन अर्थ के लिए भी सनातन शब्द का प्रयोग करते हैं ।
इस प्रकार मेरी समझ से सनातन शब्द का निकटत्तम अर्थ है : " सार्वभौमिक आदि-अनंत-कालीन सत्य'
अब धर्म शब्द का अर्थ जानने का प्रयत्न करते हैं। विभिन्न शब्द-कोषों, धार्मिक पुस्तकों व विद्वान लेखक जनों द्वारा धर्म शब्द का प्रयोग : मर्यादा , नीति , सिद्धांत , मार्ग , अनुशासन , कर्तव्य , नियम , मानना या पालन करना आदि के लिए किया जाता है। परन्तु वर्तमान समय में बहुत से विद्वान व गुणी-जन धर्म शब्द को धार्मिक-प्रतिबद्धता और पूजा-पाठ की पद्धत्ति के लिए भी प्रयोग करते हैं।
परन्तु मेरी समझ में धर्म शब्द का निकटत्तम शाब्दिक अर्थ अनुशासन या कर्तव्य ही है ।
अब यदि हम सनातन और धर्म शब्द को जोड़ दें तो अर्थ बनता है :

"सार्वभौमिक आदि-अन्नंत कालीन मर्यादित सत्य या कर्त्तव्य "
मेरे विचार से सनातन धरम के इस अर्थ  को हम प्राचीन व नवीन सभी सन्दर्भ में प्रयोग कर सकते हैं .सनातन-धर्म या सार्वभौमिक-धर्म  जिसे  वैदिक-धरम यानि वेदों का धरम भी कहा जाता है, यह पूजा-पद्धति न होकर ईश्वर के प्रति मनुष्य का कर्तव्य , कर्तव्यों का अभ्यास या जीवन के आचरण की संहिता (code of life ) है. यही वर्तमान समय में हिन्दू-धर्मं के नाम से अधिक प्रसिद्ध है . पुरातन काल में सनातन-धर्म के नाम से ही जाना जाता था.
सनातन धर्म (हिन्दू धर्म ) के बुनियादी सिद्धांतों को आसानी से परिभाषित नहीं किया जा सकता है. विश्व के अन्य सभी धर्म ,पंथ या सम्प्रदाए किसी व्यक्ति-विशेष या धार्मिक-पुस्तक या कहे गए वचनों के द्वारा किसी निश्चित काल में ही प्रतिपादित या आरम्भ हुए हें . इसके विपरीत सनातन-धर्म या हिन्दू-धर्म  किसी व्यक्ति-विशेष, पुस्तक,वचनों द्वारा या काल में आरम्भ नहीं हुआ.यह मान्यता है और विश्वाश भी किया जाता है कि  सनातन-धर्म विश्व का प्राचिनत्तम धर्म है . सभ्यताओं, संस्कृतियों और भौगोलिक-परिवर्तनों व कालांतर विभिन्न कारणों से  कुछ अन्य संस्कृतियों और जाति-नस्लों के समावेश होने के कारण भी समय-समय पर इसमें कुछ बदलाव आते रहे होंगे. इस प्रकार यह तो एक मानने योग्य सत्य है कि सनातन-धर्म हमारे पौराणिक ऋषि-मुनियों ने जप-तप-ध्यान-योग और युगों-युगों की कठिन-तपस्या व साधना से जीवन के शाश्वत सिद्धांतों की खोज व निर्धारित कर उन्हें स्वयं भी अपनाया व इसी प्रकार उनके आश्रम वासियों, व अन्य अनुसरण-कर्ताओं ने अपनाया. इस प्रकार सनातन-धर्म या वर्तमान में हिन्दू धर्म के नाम से प्रसिद्ध व प्रचलित धर्म - व्यक्तियों द्वारा स्थापित धर्म न होकर प्रधानतः मर्यादाओं व सिद्धांतों की पालना है और जो भी व्यक्ति इन आदि-अनंत काल से स्थापित सिद्धांतों व मर्यादाओं का उचित रूप से पालन करता है - वह हिन्दू कहलाता है .
हिन्दू शब्द पर हजारों-हजारों इतिहासकारों, खोजी -लेखकों, विवेचकों. विश्लेषकों व  शोध-कर्ताओं ने जो निष्कर्ष निकाले उसके अनुसार हिन्दू  शब्द की उत्पति पर तो अवश्य ही मतों पर मैं विभिन्नता है परन्तु हिन्दू शब्द के अर्थ पर प्राय सभी सहमत हैं कि - सनातन धर्म को मानने वाले हिन्दू हैं अर्थात हिन्दू धर्म को मानने वाले हिन्दू हैं.




( क्रमशः )

Saturday, August 8, 2009


नैना देवी मन्दिर
(आवश्यक वर्णन अभी एकत्रित कर रहा हूँ )

काँगड़ा देवी
(आवश्यक वर्णन अभी एकत्रित कर रहा हूँ )



ज्वाला जी मन्दिर

(आवश्यक वर्णन अभी एकत्रित कर रहा हूँ ) 




भीमाकाली 
(आवश्यक वर्णन अभी एकत्रित कर रहा हूँ )  




शिव मन्दिर बैजनाथ
(आवश्यक वर्णन अभी एकत्रित कर रहा हूँ )


चिन्तपुरनी देवी 

                                                          श्री 

                              या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता 
                         नमस्तस्ये नमश्स्ये नमस्तस्ये  नमो  नमः I
जय श्री छिन्नमस्तिका धाम
हिमांचल प्रदेश में धौलाधार पर्वत के आँचल में श्री छिन्नमस्तिका धाम के नाम से विश्व विख्यात मंदिर माता चिंतपूर्णी के नाम से भी जाना जाता है. माता श्री चिंतपूर्णी का यह मंदिर धर्मशाला -होशियारपुर सड़क मार्ग पर भरवाई नाम के गाँव से मात्र ३ किलो-मीटर  कि दूरी पर समुद्र तल से ९२० मीटर कि ऊंचाई पर स्थित है. इस स्थान को देवी माँ के बावन शक्ति पीठों में से एक शक्ति पीठ भी  माना जाता है जहां माता सती के  चरण पड़े थे .  

श्री छिन्नमस्तिका धाम या माता चिंतपूर्णी की कथा
माँ छिन्नमस्तिका चिंताओं का हरण करने वाली माँ हैं . माँ के चरणों में जिस किसी ने भी सच्चे मन से भक्ति की , उसके कष्टों का तुंरत निवारण हो गया. इसी कारण से माँ के भक्तों ने माता छिन्नमस्तिका को माँ  चिंतपूर्णी  के नाम से पुकारना आरम्भ किया . दुसरे शब्दों में भक्तों की चिंताओं को दूर करने वाली माता. पौराणिक कथाओं के अनुसार - राछसों ने पृथ्वी लोक पर बहुत उत्पात व अत्याचार  मचाया हुआ था . भगवान् शिव से वरदान प्राप्त करने के पश्चात तो राछस और भी बलशाली होकर देवताओं,ऋषि-मुनियों व आम जन-मानस पर निडर होकर अत्याचार करने लगे थे. तब ब्रह्मा , विष्णु  व शिव ने अपने तेज व प्रताप से माँ छिन्नमस्तिका को उत्पन्न किया और माता ने तत्कालीन शुम्भ व निशुम्भ नामक बलशाली व अत्याचारी राछसों का वध करके इस पृथ्वी लोक को  राछसों के अत्याचार से मुक्ति दिलाई थी.
इस धरा के भय मुक्त हो जाने के पश्चात् भगवान् विष्णु ने माता छिन्नमस्तिका को पृथ्वी लोक पर ही विश्राम करने को कहा साथ ही  यह वरदान भी दिया कि कलियुग में माँ की शक्तियां भी बढती जायेंगी. ऐसा ही वरदान भगवान् भोले शंकर ( शिव ) ने भी दिया था कि कलियुग  के अंतिम चरण में इस सृष्टि का संचालन दस महाविद्याओं द्वारा किया जायेगा. ऐसी मान्यता है कि माँ छिन्नमस्तिका भी इन्हीं दस महाविद्याओं में एक हैं. तेरहवीं शताब्दी के महान दुर्गा भक्त बाबा माई दास को माँ ने सर्व-प्रथम इसी स्थान पर साछात दर्शन दिए थे. इसके साथ ही साथ एक कथा यह भी प्रचलित है कि माँ छिन्नमस्तिका को इस स्थान पर जालंधर नामक दैत्य ने स्थापित किया था. ऐसी मान्यता भी है कि इस स्थान पर जो भक्त शैव और शाक्त कि आराधना करता है, उसे अपनी पूजा का चार गुना फल मिलता है.
जालंधर दैत्य के तप से हुई थी स्थापना
माँ छिन्नमस्तिका धाम या चिंतपूर्णी जालंधर धाम तंत्र साधना के लिए भी विख्यात माना जाता है. जन-मानस में यह आम धारणा व मान्यता प्रचलित है कि यह धाम भारतवर्ष के ५२ शक्तिपीठों में से एक है व इसके साथ ही साथ यह दस महाविद्याओं में से एक शक्ति स्थल भी है. माँ छिन्नमस्तिका इस क्षेत्र में जालन्धर नामक एक दैत्य (त्रेता युग में भगवान् शिव के क्रोध से उत्पन्न हुआ एक राछस)  की अराधना द्वारा स्थापित हुईं थीं . पौराणिक कथाओं में यह वर्णन आता है कि भगवान्  इन्द्र व बृहस्पति देव ब्रह्माण्ड का भ्रमण कर रहे थे तो राह में उन्हें एक बालक ( जो कि वास्तव में भगवान् शिव थे ) सोया हुआ मिला . राह में सोये हुए बालक को इन्द्र देवता ने कहा कि " बालक मेरे मार्ग से हट जाओ." बृहस्पति देव तो भगवान् शिव को पहचान चुके थे इस लिए वोह चुप रहे. इन्द्र देव के व्यवहार से भगवान् शिव क्रोधित हो गए . बृहस्पति देव कि प्रार्थना अनसुनी करते हुए भगवान् शिव का क्रोध सातवें आसमान पर पहुँच चुका था. क्रोधित भगवान् शिव के तीसरे नेत्र कि ज्वाला से सृष्टि को बचाने के लिए सभी देवताओं ने भगवान् शिव से प्रार्थना की और इस प्रार्थना को मानते हुए भगवान् शिव ने अपने तीसरे नेत्र की ज्वाला से जालंधर नामक दैत्य की उत्पत्ति की.
यह भी वर्णन आता है कि आगे चल कर जालंधर दैत्य ने भगवान् विष्णु  , शिव और ब्रह्मा की महान तपस्या की थी और अपने इसी तप के कारण उसने दस महा विद्याओं में से आठ पर सिद्धि प्राप्त कर ली थी, जिससे वह अत्यंत बलशाली व महान योद्धा बन गया था. अपने जीवन के अंतिम क्षणों में जालंधर दैत्य ने भगवान् शिव से एक वरदान प्राप्त किया कि जो भी उपासक जालंधर पीठ क्षेत्र में शैव व शाक्त की अराधना करेगा, वह चार गुना फल प्राप्त करेगा. ऐसी मान्यता है कि दैत्य ने जालंधर पीठ क्षेत्र में ३५५ देवालयों व चार द्वारपालों की स्थापना की थी. यह कालेश्वर महादेव , कुंजेश्वर महादेव (लंबा गाँव ), नंदिकेश्वर महादेव (चामुंडा ) , कुवेश्वर महादेव (जो अब पोंग बाँध, तलवाड़ा में जल मग्न हो चुका है ) जालंधर पीठ क्षेत्र की चारों दिशाओं से रक्षा करते थे . अपने जप-तप और सिद्धि प्राप्ति के  इसी घमंड में उसने देवताओं पर अत्याचार डाने आरम्भ कर दिए. चारों ओर हा -हा कार मच गया . आठ सिद्धि प्राप्त और महा शक्तिशाली जालंधर दैत्य से मुक्ति पाना देवताओं को भी असंभव सा लगने लगा था . जालंधर दैत्य की वृंदा नामक पतिव्रता व शिव उपासक स्त्री अपने जप-तप के कारण सदैव ही अपने पति जालंधर दैत्य की सभी प्रकार की कठिनाइयों व मुसीबतों से रक्षा करती थी. इधर जालंधर के अत्याचारों से पीड़ित देवताओं कि पुकार पर भगवान् शिव ने स्वयं ही जालंधर दैत्य का वध करने का निश्चय किया और दैत्य के श्राप से बचने के लिए भगवान् विष्णु को भेजा जिन्होंने अपना भेष बदल कर जालंधर दैत्य का वध कर  देवताओं को दैत्य के अत्याचार से मुक्ति दिलाई.     
बाबा माई दास को साक्षात दर्शन
बाबा माईदास ने ही सर्वप्रथम माँ चिंतपूर्णी के निवास कि खोज की  थी व बाबा माईदास को ही माँ चिंतपूर्णी ने सर्वप्रथम दर्शन दिए थे . लोक मान्यता व जनश्रुतिनुसार भक्त बाबा माईदास अपने ससुराल जाते समय मार्ग में विश्राम करने हेतु एक बट-वृक्ष के नीचे बैठे और उनकी आँख लग गई. स्वप्न में माँ ने उन्हें दर्शन देकर कहा कि " हे-माईदास ,तुम यहीं रह कर मेरी सेवा करो इसी से तुहारा कल्याण होगा." आँख खुलने पर बाबा ने वहां कुछ नहीं पाया . पूर्व से ही माँ भगवती के प्रति अपार आस्था व श्रद्धा रखने के कारण बाबा माँ भगवती के उपासक थे . इस स्वप्न के बाद कई दिन तक विचलित यहाँ-वहां भटकने के पश्चात माईदास पुनः उसी स्थान पर लौट आये जहां माता ने उन्हें दर्शन दिए थे. उसी स्थान उन्होंने माँ का स्मरण करना आरम्भ किया और प्रार्थना करने लगे कि " हे माँ मैं तो तुच्छ और बुद्धिहीन हूँ ,यदि मेरी आस्था और भक्ति सच्ची है तो मुझे मार्ग दिखाओ."  माईदास कि सरलता व भक्ति से प्रसन्न हो माँ ने एक अत्यंत ही तेजस्वी स्वरुप वाली कन्या के रूप में साक्षात दर्शन दिए और कहा कि यहाँ रह कर उनकी पूजा करें . शंकित हो बाबा ने सरलता से माँ से पूछा कि इस घने जंगल में रहने व खाने की बात तो दूर ,पीने को पानी भी नहीं है . इस भयावह जंगल में वह किस के सहारे रहेंगे ?  तब  माँ  ने मुस्कुरा कर  कहा- " चिंता मत करो और पास पड़ा यह पत्थर उखाडो " . इतना कह कर माँ पिंडी के रूप में वहीँ विराजमान हो गईं.
बाबा ने माँ द्वारा बतलाये गए स्थान से पत्थर उखाड़ा तो वहां से एक तेज जल-धारा बह निकली . जिसे देख कर बाबा कि ख़ुशी का ठिकाना न रहा  और वह उसी माँ स्वरूपिणी पिंडी कि सेवा व अर्चना में लग गए व वहीँ पास ही कुटिया बना कर रहने लगे. वह ऐतिहासिक पत्थर आज भी वहां विद्यमान है और जिस स्थान से पानी निकला था वह एक पवित्र बावड़ी के रूप में आज भी वहीँ है और माँ चिंतपूर्णी के मंदिर के लिए पवित्र जल इसी बावड़ी से लाया जाता है.
शिव मंदिरों द्वारा रक्षित माँ चिंतपूर्णी धाम
प्राचीन धार्मिक-ग्रंथों में यह वर्णन मिलता है कि माँ छिन्नमस्तिका के निवास स्थान के लिए चारों दिशाओं में रुद्रदेव (शिव) का संरक्षण होना आवश्यक है. अर्थात वह स्थान चहुँ-दिशाओं से सामान दूरी से शिव मंदिरों द्वारा रक्षित होगा . यह लक्षण         माँ श्री चिंतपूर्णी धाम पर शत-प्रतिशत सत्य लक्षित होते हैं . माँ श्री चिंतपूर्णी धाम के चहुँ दिशाओं में सामान दूरी (२३-२३ किलो मीटर ) पर ऐतिहासिक  शिव मंदिर स्थापित हैं . उदाहरण स्वरुप : पूर्व दिशा में श्री कालेश्वर महादेव , पश्चिम में श्री नरयाना महादेव   ( यह दोनों मंदिर वर्तमान में ब्यास नदी पर पोंग-बाँध बनने के फलस्वरूप जलमग्न हो चुके है) , दक्षिण दिशा में श्री शिवबाड़ी मंदिर (गगरेट ) और उत्तर दिशा में श्री मुचकुंद  महादेव (डालियारा नामक स्थान के निकट ) के मंदिर हैं . माँ ने जब बाबा माईदास को साक्षात् दर्शन दिए थे तब स्वयं कहा था कि उनका निवास स्थान इन देव स्थानों के ही मध्य स्थित है और इस सीमा के अन्दर वह भय-मुक्त हो कर रह सकते है , अर्थात इन चार शिवालयों द्वारा रक्षित सीमा के भीतर . 
माँ श्री चिंतपूर्णी या श्री छिन्नमस्तिका का नमस्कार मंत्र है -
"ओउम एं क्लीं ह्रीं श्री भयनाशिनी हूँ  हूँ फट स्वाहा "
साक्षात रूप में दर्शन देते हुए माँ श्री छिन्नमस्तिका ने यही मंत्र बाबा माईदास को दिया था , इसी लिए इसे ऐतिहासिक मंत्र कहते हैं.
चिंता-हरण चमत्कारी माँ श्री छिन्नमस्तिका (माँ चिंतपूर्णी )
ऐसी मान्यता है कि माँ चिंतपूर्णी मैं आस्था रखने वाले व दर्शन करने वाले भक्तों की न केवल चिंताएँ ही दूर होती हैं बल्कि भक्तों के असंभव कार्य भी पलक झपकते ही पूरे हो जाते हैं. चिंता- हरण माँ ने तो भक्तों व उनके परिवारों की जिन्दगी ही बदल कर रख दी हैं. देश ही नहीं विदेशों मैं रहने वाले माँ के भक्त हजारों-लाखों कि संख्या मैं यहाँ माथा टेकने आते हैं. वर्ष २००२ की  ही बात करें तो इंग्लॅण्ड में रहने वाले भारतीय मूल के श्री रोशन (मूल निवासी मेहरी गेट , सिक्खां मोहल्ला ,फगवाडा ) की धरमपत्नी श्रीमती रानी पिछले साडे तीन वर्षों से पक्षाघात के कारण बोलने में असमर्थ हो गई थीं . बहुत इलाज करवाने के पश्चात् भी कुछ लाभ नहीं हुआ और पत्नी श्रीमती रानी को घोर निराशा ने घेर लिया . तब  मन में माँ चिंतपूर्णी के लिए गहन आस्था व श्रद्घा लिए रोशन लाल जी चिंतपूर्णी धाम बस-अड्डे से पेट के बल दंडवत होकर माँ के दरबार में सपरिवार अपनी पत्नी के स्वस्थ होने कि कामना लेकर आये. मंदिर परिसर में बैठी पत्नी ने जब अचानक जोर से माँ का जय-कारा लगा दिया तो सारे परिवार कि ऑंखें छलक गईं और सारे इलाके में यह बात जंगल की आग की तरह फैल गई. इससे पूर्व जम्मू से आया एक सोलह वर्षीया गूंगा बालक भी माँ के चमत्कार से बोलने लगा था. माँ के भक्तों पर ऐसे चमत्कार होते ही रहते हैं ऐसी भक्तों की मान्यता है. .   

नवरात्र में पूजा का महत्व
सनातन या हिन्दू धर्म में तीज-त्योहारों व धार्मिक पर्वों पर देश के विभिन्न भागों में व्रतों का विधान है. उसी प्रकार देवी माँ के नवरात्रों को भी नो दिनों तक उपवास रक्खा जाता है. इसके अतिरिक्त इस व्रत में भूमि पर सोना, कन्या पूजन करना , वस्त्रादि दान करना और त्रिकाल में देवी पूजा का विधान है. नवरात्र में देवी पूजा के विभिन्न प्रकार हें , लेकिन वर्तमान समय में प्रतिपदादि कल्प के अनुससार ही पूजा कि जाति है. शारदीय नवरात्र में पहले से नवमी तक नवरात्र विधि का अनुष्ठान और वीधिपुर्वक देवी माँ का पूजन होता है. प्रतिपदा से कल्प आरम्भ करके महानवमी के दिन तक देवी महात्म्य  का पाठ और देवी की पूजा की जाती है. इसमें स्तवन .पूजन.हवं और नवमी इन तिथियों के अंग होते हैं. साधारणतय  नवमी अथवा दशमी के दिन कन्या पूजन करके विसर्जन होता है. इस विधान को नवरात्र कहा जाता है. पुराण साहित्य के अनुससार इस काल में माँ दुर्गा का पूजन करने से सभी देवता प्रसन्न होते हैं. कहा जाता है कि नवरात्रों को  विधि-विधान से देवी माँ की पूजा-अर्चना करने वाले मोक्ष के अधिकारी हो जाते हैं. नवरात्र व्रत का अनुष्ठान करके समाधि नामक वैश्य ने मोक्ष और सुरथ नामक राजा ने अपना खोया हुआ राज्य प्राप्त किया था. रामायण काल में सीता हरण के पश्चात् भगवान् श्री राम जी ने इस व्रत को किष्किन्धा नगरी में किया था जिसके फलस्वरूप श्री राम समुद्र में सेतु बनवा कर लंकापति रावण का वध करने व विजय प्राप्ति में सफल रहे थे .
                   -- :     आरती माँ चिंतपूर्णी जी की     : --
ओउम ब्रह्माणी- रूद्राणी- कल्याणी सुखदा कल्याणी I
नित्यं   ब्रह्मस्वरूपा     त्रिभुवन   में जानी II    जय देवी जय देवी I
इन्द्रादिक सुर -सेवित-पटरानी I . 
गावत -किन्नर - यक्षा मधुर-स्वर-वाणी  II   जय देवी I 
शोभित हंस- मयूर -कोकिल-किलकानी I.   
वट के निकटे   माता    भक्तों के मनभानी II  जय देवी I.
शेष-सुरेश-महेश-गणेश से अधमानी I
लकडा   वीर्के   आगे   योगिनी  भाव्कानी II.  जय देवी I.
सुंदर -मंदिर ऊँचे शिखरानी I.
पुष्पों की माला साजत टोकरी  प्रिय मानी II. जय देवी  I.
दूर से आवत संत सु थक-थानी I.
दू:ख -हरता सुख-करता पाप खंडन पानी II. जय देवी  I.
हरचरण दास की विनती सुन माँ कल्याणी I.
मेरे मन की बांछा, मेरे चित की बांछा, चरणों में लानी II.  जय देवी  I
अचिन्त्य मात कि आरती जो गावे प्राणी  I
ताकि  चिंता  नाशत  शत-शत  ये  बाणी  II  जय देवी जय देवी. 


नोट :- इस मंदिर का प्रबंधन हिमाचल प्रदेश सरकार द्वारा गठित मंदिर न्यास कर रहा है और यात्रियों के ठहरने के लिए सरकारी व गैर-सरकारी संस्थाओं द्बारा संचालित यात्री-भवन व धर्मशालाएं व होटल समीप ही हैं . 

पहुँचने का जरिया :- रेल मार्ग द्बारा :-  अम्बाला ,चंडीगढ़ , नंगल , ऊना जालंधर या पठानकोट तक फिर सड़क मार्ग से माँ चिंतपूर्णी धाम तक.
सड़क द्वारा :- चंडीगढ़ , ऊना,  नंगल व जालंधर होकर .
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भगवान् परशुराम मन्दिर, रेणुका जी, नाहन
(आवश्यक वर्णन अभी एकत्रित कर रहा हूँ )
उपरोक्त पौराणिक , ऐतिहासिक व प्रसिद्ध मंदिरों के अतिरिक्त अन्य बहुत से मंदिर जैसे काँगड़ा का माँ चामुंडा देवी, रिवालसर, शिमला का जाखू व हनुमान मंदिर , मंडी शहर के तारना देवी , भूतनाथ व पांडव कालीन मंदिर व चम्बा जिले के पौरोणिक व ऐतिहासिक  मंदिर भी हैं . कुछ की जानकारी व चित्र मैं ले आया हूँ व शेष की जानकारी व चित्र मैं एकत्रित कर रहा हूँ . आशा है कि दीपावली तक मैं मंदिरों कि समुचित जानकारी प्रकाशित कर दूंगा. शेष प्रभु इच्छा पर निर्भर करता है. 
अभी तो सनातन धर्म की जो ढेर सारी जानकारी  एकत्रित की हुई है , वह भी प्रकाशित करनी है. 
विशेष :-

बच्चों के लिए प्रश्न-उत्तर के रूप में बहुत ही रोचक व ज्ञान-वर्धक सनातन/हिन्दू धर्म की जानकारी हेतु एक पुस्तक भी लिख रहा हूँ . यदि कोई  स्पांसर-कर्ता मिल जाए या कुछ विज्ञापनों का प्रबंध हो जाये यानि पुस्तक प्रकाशित करने का प्रबंध हो जाये या खार्चा कण हो जाए  तो वर्ष २०१० के प्रथम माह में ही प्रकाशित कर दूंगा ऐसी मेरी योजना है . फिर यह पुस्तक विधयालाओं में बाँट कर १५ दिनों के पश्चात इसी विषय में उनकी परीक्षा ली जावेगी व पुरूस्कार बाटे जायेगे ऐसी योजना लेकर चल रहा हूँ. 

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